अफ़वाहों का बाज़ार गर्म है
किसी को ना थोड़ी भी शर्म है
हर बात में शामिल करना इन्हें ‘धर्म’ है
सच्ची बात कहना भी अब जुर्म है
‘मरेंगे सब’ ये ना सोचना कि
तुम्हारा मुस्तकबिल नर्म है
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साक़ी को रिंदो की हुई फिक्रए दम है
लगता है मायखाने में शराब हुई कम है
ना इंसाफ़ी का आलम ये ए मदनो मुर्शीद
कि हमें हुई ना एक बूँद भी मयस्सर
उन्होंने पी भी ली और छलका भी दीए
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ईमान को इनके नफ़रत ने है ख़रीदा
इल्म क्या करेगा जो अक्ल पे ही पड़ा हो परदा
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रूह नाम है जिसका, वो ना मिटती है ना फना होती है
खनाबदोशी काम है उसका वो बस तब्दील ए मकाँ करती है
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मुनाफ़िकी के आलम में अक्स दिखाने वाले की क़ीमत क्या है
मुखौटों के बाजार में आइना बेचने वालों की कीमत क्या है
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सवाल हैं भरपूर पर जवाब नदारद
नींद है भरपूर पर ख़्वाब नदारद
गले मिल के होती थी ईद
अब मौक़ा ए दस्तूर है पर असबाब नदारद
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कुछ तो हासिल हुआ है ए ग़ैर-मुस्ताकिल तुझे खोने से
कि तू भी रोक नहीं सका है ख़्वाबों में मुझे तुझको छूने से
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